श्रीमद भगवद गीता, कर्म योग, |
श्रीमद भगवद गीता नामक पंचम वेद जो आज से लगभग हजारों वर्षो पूर्व रचित किया गया। इसका अध्यन करने मात्र से हमें कर्म करने की जो शिक्षा मिलती है वह किसी दूसरी पुस्तक से प्राप्त नहीं हो सकती।
श्रीमद भगवद गीता में स्वमं भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को जो कर्म योग की शिक्षा दी गयी आज इसका हमें यह अर्थ नहीं निकलना चाहिए की हम कर्म करें और फल की इच्छा न करें अर्थात हम सन्यासी हो जाएँ।
हमें कर्म करना चाहिए और फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए क्योकि फल की इच्छा हमें आसक्ति बना देती है और फल क्या होगा वो तो हमारे वश में है ही नहीं। हमें प्रत्येक दिन कर्म करते रहना चाहिए क्योकि कर्म बिना तो जीवन का निर्वाह संभव ही नहीं है।
एक बात हमेशा ध्यान रहे - यदि कर्म करोगे तो फल मिलभी सकता है और नहीं भी। और यदि कर्म नहीं करोगे तो निश्चित है की फल नहीं मिलेगा।
जब अर्जुन ने युद्ध क्षेत्र में अपने सगे संबंधियों को अपने सामने खड़े देखा तो उसके भीतर उनके प्रति मोह भाव उत्पन्न होने लगा और वो कायरता की ओर बढ़ते हुए उस अधर्म को भूल गया जो द्रोपदी के साथ घटित हुआ था
कुतस्त्वा कश्मलम इदं विषमे समुपस्थितम।
अनार्यजुष्टम अस्वर्ग्यम अकीर्तिकरम अर्जुन।।३।।
अर्थ - भगवान बोले हे अर्जुन तुम्हे इस असमय में किस प्रकार मोह ने अपने वश में कर लिया है।
यह उन श्रेष्ठ पुरुषों के लिए उचित नहीं है जो अपने जीवन का मूल्य जानता है न यह स्वर्ग देने वाला है और न ही कीर्ति (प्रसिद्धि ) देने वाला है।
श्री भगवानुवाच |
अशोच्यानन्वशोचस्तवं प्रज्ञावादाश्च भाषसे |
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचिन्त पण्डितः || 11||
अर्थ - ज्ञानी पुरुष न तो जाने बालों का सोक करते है और न वो जो है
तुम तो ज्ञानी हो पर बात तो तुम मूर्खो जैसी कर रहे हो।
न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
अर्थ - यह आत्मा न कभी जन्म लेता है और न मरता है। और न ही यह फिरसे उत्पन्न होने वाला है
क्योकि यह अजन्मा , नित्य ,सनातन व् पुरातन है सरीर के मर जाने से भी आत्मा नहीं मरता।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।
अर्थ - जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण कर लेता है
वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर नए शरीरों को धारण कर लेता है
आत्मा का विनाश तो होही नहीं सकता।
Chapter -2, Sloka- 71
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2.71।।
Meaning- जो व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति अर्थात भोग विलास की समस्त इच्छाओं का परित्याग करदेता है जो इच्छाओं से रहित रहता है जिसने सारी ममता त्याग दी है और जो अहंकार से रहित होकर विचार करता है। वही वास्तविक शांति को प्राप्त करता है।
Chapter -3, Sloka- 4
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।
Meaning- न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न केवल सन्यास से सिद्धि
प्राप्त की जा सकती है।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।
Meaning- न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न केवल सन्यास से सिद्धि
प्राप्त की जा सकती है।
Chapter -3, Sloka- 39
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3.39।।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3.39।।
Chapter -4, Sloka- 39
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।4.39।।
Meaning- जिस पुरुष ने अपनी इन्द्रियों को पूर्णतया वश में कर लिया हो और जो अपने साधन में तत्परतापूर्वक लगा हुआ हो और जो परमात्मा में।,महापुरुषों में, धर्म में और शास्त्रों में प्रत्यक्ष की तरह आदरपूर्वक विश्वास रखता हो उसे श्रद्धावान पुरुष कहा जाता है। ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ २६ ॥
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ २६ ॥
अर्थ - मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कही भी जाता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में करे l (६, २६)
पुस्तकस्था तु या विद्या,परहस्तगतं च धनम् |
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||
अर्थात् : पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन—ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते |
युक्ताहार-विहारस्य युक्त-चॆष्टस्य कर्मसु |
युक्त-स्वप्नावबॊधस्य यॊगॊ भवति दुःख-हा | |
युक्त-स्वप्नावबॊधस्य यॊगॊ भवति दुःख-हा | |
अर्थात - उस पुरुष के लिए योग दुखनाशक होता है जो युक्त आहार और विहार करने वाला है यथायोग्य चेष्टा करने वाला है और परिमित शयन और जागरण करने वाला है
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते || 6||
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते || 6||
अर्थात् -
जो कार्मेंद्रियों को वश में तो करता है, किंतु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिंतन करता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है l
जो कार्मेंद्रियों को वश में तो करता है, किंतु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिंतन करता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है l
अर्जुन उवाच
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥
हिंदी में - हे कृष्ण! क्योंकि मन चंचल (अस्थिर), विचलित करने वाला, हठीला तथा अत्यंत बलवान है,
अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है l
अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है l
श्रीभगवानुवाच |
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते || 35||
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते || 35||
हिंदी में - निस्संदेह चंचल मन को वश में करना अत्यंत कठिन है, किंतु उपयुक्त अभ्यास तथा वैराग्य द्वारा ऎसा संभव है
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित: |
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्ते तात्मैव शत्रुवत् || 6||
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्ते तात्मैव शत्रुवत् || 6||
अर्थात्
जिसने मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, किंतु जो ऎसा नहीं कर पाया उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा l
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।6.7।।
अर्थात
जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शांति प्राप्त कर ली है l एसे पुरुष के लिए सूख- दुख, सर्दी - गर्मी और मान - अपमान एक से है l
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।6.7।।
अर्थात
जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शांति प्राप्त कर ली है l एसे पुरुष के लिए सूख- दुख, सर्दी - गर्मी और मान - अपमान एक से है l
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ |
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् || 41||
अर्थ -
तुम अपनी इंद्रियों को वश में करो, कोई गलत कर्म करने से पहले, प्रारंभ में ही खुद को रोको अन्यथा ज्ञान विज्ञान का नाश हो जाए गा l
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् || 41||
अर्थ -
तुम अपनी इंद्रियों को वश में करो, कोई गलत कर्म करने से पहले, प्रारंभ में ही खुद को रोको अन्यथा ज्ञान विज्ञान का नाश हो जाए गा l
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया । विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु
भावार्थ :
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त- ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर॥
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त- ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर॥
तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष: || 19||
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष: || 19||
Meaning- तुम निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य कर्म का भलीभाँति आचरण करो क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
अज्ञः च अश्रद्धधनः च संशय आत्म विनश्यति ।
नायं लोकः अस्ति न पराः न सुखं संशय आत्मानः
नायं लोकः अस्ति न पराः न सुखं संशय आत्मानः
अध्याय ४ ,श्लोक ४०
भावार्थ -
जो अज्ञानी है और जिनमे श्रद्धा भाव नहीं है जो बात बात पर शंका अथवा संदेह करते है , उनका विनाश तो निश्चित है और उन्हें न इस लोक में सुख मिलता है और न परलोक में। ज्ञानयोगी बनो कर्म करो।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी |
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: || 69||
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: || 69||
Meaning-
What all beings consider as day is the night of ignorance for the wise, and what all creatures see as night is the day for the introspective sage.
क्योकि sage (मुनि ) कुछ पाने अथवा खोने के ड़र से नहीं जागता है
क्योकि sage (मुनि ) कुछ पाने अथवा खोने के ड़र से नहीं जागता है
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
Meaning - The working senses are superior to dull matter; mind is higher than the senses; intelligence is still higher than the mind; and he [the soul] is even higher than the intelligence.
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
अर्थ-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
अर्थ-
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥
अर्थ-
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
अर्थ-
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥
अर्थ-
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥२-३८॥
अर्थ-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
अर्थ-
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
अर्थ-
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
अर्थ-
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
अर्थ-
क्रोधात भवति सम्मोहः सम्मोहात स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशात बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात प्रणश्यति ॥
अर्थ-